An attempt at translating from the original English to Hindustānī, Alfred, Lord Tennyson's lyrical ballad 'The Lady of Shalott', written in 1842:
खण्ड पहला
हैं तरफ़ हर दरिया-किनारे दिखते
राई और जौ के खेत ढकते
कोना-कोना ज़मीं का, आसमाँ छूते;
इक रास्ता है जाता, मैदान होते,
सिम्त-ए-मीनारदार-कैमिलॉट।
है ऊपर और नीचे रोज़ाना होता,
ताकना जिस ओर गुल कँवल उगता
उस टापू के गिर्द- वह वहाँ सोता,
वह टापू, जज़ीरा-ए-शलॉट।
बेंत कुम्हलाते, सफ़ेदें कँपकँपाते,
मन्द-मन्द झोंके, छिपते, ठिठुरते
सैरते, लहरते, घुलते, और मिलते,
टापू से होते, गुज़रते, पहुँचते,
मुसलसल हर-दम, कैमिलॉट।
चहारदीवारी, चहारमीनारी
स्लेटी, से दिखती इक फुलवारी;
वीरानी से लिपटी, जज़ीरे पे रहती
वह, मोहतरमा-ए-शलॉट।
हाशिया-नशीं, परदा दरख़्तों का रखते,
वज़नी जहाज़, सरकते, खिसकते।
पीछे आहिस्ता-से घोड़ें हैं चलते।
इक कश्ती, झिलमिलाती, रेशम फहराते,
तैरती पहुँचती कैमिलॉट।
हैं देखे क्या किसने इशारत वे हाथ?
है देखी वह तख़्ती झरोखे के साथ?
या जानता हर कोई उस मोहतरमा की गाथ?
उसकी, मोहतरमा-ए-शलॉट।
लुनेरे दिखाती बस सुबह की लौ;
लुनेरे ही दिखते, लुनते वह जौ;
हैं सुनते वही वे तरन्नुमें सौ,
वे दरिया से आते, फटती जो पौ,
मँडराते, पहुँचते जो कैमिलॉट।
पहाड़ी हवाई पर पूले बनाता,
वह गूँजता तराना चाँदनी में सुनता,
इक थका लुनेरा यह फुसफुसाता:
' है वह परीज़ाद मोहतरमा-ए-शलॉट।'
खण्ड दूसरा
बुनती दिन-रात, वह बुनती है रहती
जादुई इक जाल, रङ्गीं, वसन्ती।
'पतझड़ है पास'- ख़बर इक उड़ती
है सुनी उसने जो- 'गर नज़र है मिलती,
दिख झलक भर जाता गर कैमिलॉट'।
पर कैसी 'पतझड़' वह, कैसा वह शाप,
जानती नहीं- सो रहती चुप-चाप-
जपती बेनाग़ा ज्यों जोगन है जाप-
बुनती मोहतरमा-ए-शलॉट।
आईने इक साफ़ में, सामने लटकते,
खूँटी पर हर दम, ज़रिए गुज़रते,
दिखते दुनिया के सायें उभरते।
दिखता वह रास्ता रेंगते, पसरते,
जाता नीचे जो कैमिलॉट:
और दिखती वह दरिया, छलकती, छमछमाती,
दिखते वे उखड़े मज़दूर देहाती,
सुर्ख़ी दुपट्टे- बाज़ारों से करती
पार लड़कियाँ शलॉट।
यों कभी दोशीज़ाओं का खुशनुमा क़ाफ़िला-
कभी फ़क़ीर कोई गश्त पे निकला,
कभी चरवाहा- गड़ेरिया घुँघराला-,
या जुल्फ़ी जवाँ कोई सूरज-सा उजला,
जाता मीनारदार कैमिलॉट।
और कभी उस नीले-से शीशे में दिखते
वे रुस्तम-बहादुर, घुड़सवारी फ़रमाते:
वफ़ादार, ईमानदार कोई वीर नहीं वास्ते
यों उसके, मोहतरमा-ए-शलॉट।
बहर हाल, कलौंसी पर बुनती शरारे,
बुनती वे आईने के जादुई नज़ारे,
जो अक्सर वे दिखते, महमाँ सितारे,
इक रोशन जनाज़ा, दरिया-किनारे,
जाता कव्वाल कैमिलॉट:
या चौदहवीं की चाँदनी जब फ़लक पर चढ़ती,
और आशिक़-माशूक़ा की इक जोड़ी निखरती,
'हूँ ऊब चुकी अब इन अक्सों से' कहती
'मैं', वह मोहतरमा-ए-शलॉट।
खण्ड तीसरा
तीर-नुमा ख़ाबगाह की ओरियों को चीर,
खलियानों को चीर, सवार-ए-समीर,
छनती आतिश हो, चुन्धियाता इक हीर,
पीतल की बख़्तर में सूरमा, कबीर,
शूर मोहतरम लांसलॉट-
शुजाअत हो ढाल पर जिसकी पुर दर्ज़,
फ़रमाती खूबसूरती को आदाब अर्ज़,
चमचमाती मैदानों में सोने के तर्ज़,
हमसाया-ए-सुनसान-शलॉट।
लगाम नवरत्नी वह उड़ती आज़ाद,
सितारों की शाख़ हो, इतनी आबाद
खुद कहकशाँ मानो हो दे रही दाद।
वे घुँघरू झङ्कारे मयकश इक नाद
जो सरपट वह दौड़ा कैमिलॉट:
था टँगा और परतले नक़्क़ाशी-लबरेज़
से चाँदी का बिगुल इक हैरत-अङ्गेज़,
और खनका बख़्तर वह, दौड़ा जो तेज़
हमसाया-ए-सुनसान-शलॉट।
नीलम था अम्बर और मौसम फ़रहीन।
जवाहरों से जड़ी वह चमड़े की ज़ीन
चमकी, और टोपी और कलगी नशीन
फ़रोज़ाँ यों साथ हों लपटें हसीन,
जो दौड़ा वह नीचे कैमिलॉट,
ज्यों अकसर वह जामुनी रातों में दूर
आकाशगङ्गा में बहता सुरूर,
किसी टूटे हुए तारे का छुटा हुआ नूर
सहला जाता सूना शलॉट।
पी धूप ज्यों भौहें उठ खिली उसकी;
जञ्गावर घोड़े की नालें दमकी;
टोप तली बदलियाँ ज्यों झूमी-झुमकी,
वे काजल-सी काली ज्यों लटें लहकी,
जो दौड़ा नीचे वह कैमिलॉट।
झलका वह दरिया, और दरिया का सिरा,
आईने बिल्लौरी पर बिजलियाँ गिरा,
गाता इक गाना, 'टिरा-आ-लिरा',
झलका मोहतरम लांसलॉट।
फेंक उठी करघा वह, खा उठी ख़ार,
चक्कर लगाए कमरे में चार,
देखा वह कँवल-ए-आब गुलज़ार,
देखी वह टोपी और कलगी सवार,
देख लिया आख़िर वह कैमिलॉट।
जो हवा इक चली, और लूट गई जाल;
टूट गया शीशा वह; ठहर गया काल।
'लग चुका शाप, हाय अल्लाह!' बेहाल
चीखी मोहतरमा-ए-शलॉट।
खण्ड चौथा
तूफ़ानी पुरवैया यों रोती-रँभाती,
ज़र्द हर वादी यों आँखें चुराती,
नदिया किनारे से ज़ोर चिल्लाती,
फूटी हुई बदलियाँ बारिश बरसाती,
दफ़नाती मीनारदार कैमिलॉट।
नीचे वह उतरी जो कश्ती दिखलाई
दी, तैरते इक तने के तले समाई।
माथे पर कश्ती के आखर वे ढाई
दिए खुरच: मोहतरमा-ए-शलॉट।
हो धुँधले उस दरिया के कारे उस वास
के सायों में खोया कोई अञ्जुम-शनास,
देख रहा अपनी बदक़िस्मत-ओ-यास,
काँच-नुमा दीदों से, ऐसा आभास
दे, देखा फिर ओर-ए-कैमिलॉट।
और ढीली ज़ञ्जीर, जो बीते वे पहर,
और बैठी जा नीचे। उठी इक लहर।
दूर गई बह- था पानी, या ज़हर?-
वह, मोहतरमा-ए-शलॉट।
लेटी, इक बर्फ़-सा चोगा पहनकर
ढीला ज्यों यहाँ, ज्यों वहाँ को सर-सर
उड़ता- और हल्के वे पात ज्यों झर-झर
गिरते, और शबनम हो मोती जो उस पर-
तैरती हुई पहुँची वह कैमिलॉट:
और जो-जो हुई कश्ती मँडराती अयाँ,
खेत-ओ-खलियान-ओ-पहाड़ी दरमियाँ,
गया वह सुना, वह आख़िरी बयाँ,
तराना-ए-मोहतरमा-ए-शलॉट।
गया वह सुना, वह ज़ाहिद मज़मून,
गाए वे गए अलफ़ाज़ मरहून,
पुर जमा न जब तक आहिस्ता से खून,
और राख न हुआ जल-जलके जुनून
जिन आँखों में दिखता था कैमिलॉट।
जिससे पहले कि ज्वार की डोली पर आती,
किनारे पर पहला मकान देख पाती,
गुज़र गई अपना वह गीत गुनगुनाती
वह, मोहतरमा-ए-शलॉट।
मीनार तले, छज्जे-ओ-रोशनदान
तले- गलियारों, दीवार-ए-बाग़ान
से होती- इक जगमग आकार, बेजान,
-दोनों तरफ़ थे ऊँचे मकान-
पहुँची ख़ामोश वह कैमिलॉट।
निकल-निकल आए वे घाटों पर आम
बशर, मोहतरम, और बेगम तमाम,
और पढ़ा वह माथे पर कश्ती के नाम
लिखा: मोहतरमा-ए-शलॉट।
यह, कौन है यह? यह क्या है हुआ?
आवाज़ों ने हँसती हुई शमों को छुआ;
बुझा वह उजला हुआ महल हो धुआ;
और माँगने लगा डर मारे हर दुआ,
हर वीर-बहादुर-ए-कैमिलॉट।
पर लांसलॉट ने थोड़ा यों ग़ौर फ़रमाया;
'प्यारा है चेहरा', बोला, बल खाया;
'रहम करे अल्लाह, जन्नत का साया
नवाज़े, मोहतरमा-ए-शलॉट।'
January 28th 2019